Putham Pudhu Kaalai Vidiyaadha Review: पुत्तम पुधु कालई वितियता में कुछ कहानियां बहुत खूबसूरत हैं

Putham Pudhu Kaalai Vidiyaadha Review: पुत्तम पुधु कालई वितियता में कुछ कहानियां बहुत खूबसूरत हैं

Putham Pudhu Kaalai Vidiyaadha Review: हाल ही में अमेज़ॉन प्राइम वीडियो (Amazon Prime Video) पर रिलीज़ तमिल भाषा की एन्थोलॉजी (संकलन) पुत्तम पुधु कालई वितियता (Putham Pudhu Kaalai Vidiyaadha) को देखना एक सुखद अनुभव है. सामान्य तौर पर ये माना जाता है कि तमिल सिनेमा यानी रोहित शेट्टी (Rohit Shetty) क़िस्म का सिनेमा, उड़ती गाड़ियां, खतरनाक स्टंट, हीरो द्वारा बीस पच्चीस लोगों की हैरतअंगेज़ पिटाई और भरपूर मेलोड्रामा,

लेकिन हकीकत ये है कि तमिल सिनेमा में हमेशा से कुछ खूबसूरत फिल्में बनती रही हैं जिसमें कहानी और अभिनय को प्राथमिकता दी गयी है. पुत्तम पुधु कालई वितियता इस दिशा में उठाया गया एक और कदम है. 2020 में इस एंथलॉजी का पहला भाग पुत्तम पुधु कालई रिलीज़ किया गया था जिसमें गौतम मेनन, सुहासिनी मणि रत्नम और कार्तिक सुब्बाराज जैसे जाने माने निर्देशकों ने एक एक कहानी निर्देशित की थी. पुत्तम पुधु कालई वितियता में तुलनत्मक रूप से नए निर्देशक हैं जिनकी निर्देशकीय क्षमता तो ज़बरदस्त है लेकिन ये उतने पॉप्युलर नहीं हैं.

मुगाकावासा मुथम

लेखक, एडिटर और निर्देशक बालाजी मोहन इस एंथलॉजी में सबसे सफल निर्देशक हैं. मानवीय संवेदनाओं पर उनकी पकड़ देखने लायक है. लॉकडाउन में रास्तों पर लोगों की आवाजाही रोकने के लिए लगी पुलिस वालों की ड्यूटी में कुछ मधुर क्षण होते हैं. ऐसे ही एक चेक पोस्ट पर एक पुलिस कॉन्सटेबल मुरुगन (तेजींथन अरुणासलम) और एक लेडी पुलिस कांस्टेबल कुइली (गौरी किशन) में प्रेम हो जाता है.

कुछ दिनों बाद लेडी कॉन्सटेबल को कुछ गली छोड़ कर किसी और चेक पोस्ट पर शिफ्ट कर दिया जाता है. मुरुगन की चेक पोस्ट पर एक लड़का बाइक पर चला आता है और दरख्वास्त करता है कि उसकी गर्लफ्रेंड की शादी उसके पिता किसी और से कर रहे हैं इसलिए वो एक बार जा कर उस से मिलना चाहता है. मौके का फायदा उठा कर मुरुगन उस लड़के के साथ चला जाता है और कुइली की मदद से लड़का और लड़की को मिला देता है.

कहानी एकदम साधारण है क्योंकि पात्र साधारण हैं लेकिन अभिनय कमाल है. गौरी और तेजी दोनों का ही अभिनय सुन्दर है. निर्देशक बालाजी ने सभी पात्रों को असली ज़िन्दगी से उठाया है. पुलिस वालों द्वारा कोविड के खिलाफ जागरूकता फ़ैलाने के लिए एक म्यूजिक वीडियो भी बनाया जाता है जो कि इस रोमांस में थोड़ी हंसी ले आता है. शॉन रोल्डन का गया और संगीतबद्ध गाना भी बड़ा मज़ेदार है.

लोनर्स

निर्देशक हालीथा शमीम ने एक कमाल की सिचुएशन पर कहानी लिखी है जिसे देखते ही अपने पर बीती लॉकडाउन की घटनाएं याद आने लगती हैं. बॉयफ्रेंड से ब्रेकअप हो जाने के बाद नल्लथंगल (लिजो मोल होज़े) एक ऑनलाइन शादी के लिए पाजामे पर साड़ी लपेट कर बैठ जाती हैं. इसके बाद एक ऑनलाइन सेशन में सब अपने अपने दुखों का इज़हार कर रहे होते हैं जिसमें धीरन (अर्जुन दास) भी होता है. नल्ला और धीरन आपस में बात करने लगते हैं,

धीरे धीरे दोनों एक दूसरे के प्रति आकर्षित होते हैं, एक ग्रोसरी स्टोर पर उनकी रूबरू मुलाक़ात भी होती है. इन सब के बीच होता है धीरन के मित्र का कुत्ता जो धीरन के पास रहता है और उसके दोस्त की कोविड की वजह से मौत हो जाती है. एक टूटा हुआ रिश्ता नल्ला का और एक उलझा हुआ सच धीरन का, दोनों को आपस में जोड़ देता है.

कहानी आजकल के ज़माने की है. सेट डिज़ाइन से लेकर वर्क फ्रॉम होम और लॉकडाउन की वजह से बंद हो चुके व्यवसायों की सच्चाई भी देखी जा सकती है. लिजो मोल और अर्जुन दास दोनो ही सफल और प्रतिभावान अभिनेता हैं. अर्जुन की भारी आवाज़ में एक सच्चाई है और लिजो तो लगता ही नहीं की अभिनय कर रही हैं. संगीत गौतम वसु वेंकटन का है और हर दृश्य में एक पात्र की तरह सुनाई देता है. ये फिल्म सुन्दर बनी है.

मौनमे पारवाई

आजकल के तौर में मलयालम अभिनेता जेजु जॉर्ज से बेहतर कैरेक्टर आर्टिस्ट देखने को नहीं मिलेगा लेकिन मधुमिता द्वारा लिखी और निर्देशित इस फिल्म में जेजु बिना बोले ही इतना सारा अभिनय कर लेते हैं कि बरबस ही संजीव कुमार याद आ जाते हैं. मुरली (जेजु) और उनकी पत्नी यशोदा (नाडिया मोईडू) लॉकडाउन में घर पर फंसे पति-पत्नी हैं.

यशोदा एक प्रख्यात बांसुरी वादक है लेकिन समय के साथ पति -पत्नी के रिश्तों के बीच बढ़ती हुई खटास और तनाव ने संगीत को खामोश कर दिया है. दोनों एक दूसरे से बात नहीं करते. जेजु हमेशा खांस कर अपनी उपस्थिति दर्ज कराते हैं और नाडिया बर्तनों की आवाज़ से. तनाव इतना गहरा है कि कई बार दर्शकों को लगता है कि दोनों का हाथ पकड़ें, आमने सामने बिताएं और कहें चलो दोस्ती कर लो.

नाडिया को खांसी हो जाती है तो उसे लगता है कि उसे कोविड हो गया है और वो आइसोलेट कर लेती है. जेजु उसके लिए दवाई, काढ़ा और तमाम चीज़ें करते हैं जबकि उन्हें ठीक से खाना बनाना भी नहीं आता. रिपोर्ट आने में देरी की वजह से जेजु का ये काम कुछ दिनों तक खिंच जाता है. दोनों एक दूसरे के बारे में सोचते रहते हैं और जेजु को अंततः ये समझ आता है कि वो नाड़िया से बहुत प्यार करते हैं.

कमाल ये है कि दोनों ने गिन के डायलॉग बोले हैं. ज़रुरत ही नहीं पड़ी है. जहाँ खालीपन है वहां कार्तिकेय मूर्ति का लाजवाब संगीत हैं. एक जवान लड़की के माता पिता के रोल में दोनों ने अभिनय की ऊंचाइयां छू ली हैं. घर पर शराब डिलीवरी वाले से पूरी बोतल खरीदते जेजु, जब चुपके से नाडिया के बर्तनों की आवाज़ सुनते हैं तो वो धीरे धीरे एक छोटी बोतल पर रुक जाते हैं. कमाल का रोमांस है. इस कहानी को, अभिनय को, निर्देशिका को पूरे सौ नंबर देना चाहिए.

द मास्क

कहानी कमज़ोर है और अभिनय भी इसलिए इसका कोई ख़ास प्रभावी है नहीं. समलैंगिक रिश्तों पर बनी फिल्मों में बहुत महीन बातों का ध्यान रखा जाता है वर्ना वो कैरिकेचरिश यानि व्यंग्यात्मक हो जाती हैं. अर्जुन (सनत) अपने और उनके पार्टनर अरुण (पॉल) के रिश्ते को लेकर असमंजस में रहता है. वो अभी समाज में खुल कर अपने इस रिश्ते को स्वीकार नहीं करना चाहता, क्योंकि उसे समाज से निकाले जाने का भय है.

अर्जुन की मुलाक़ात होती है अपने स्कूल के दोस्त वेलु (दिलीप सुब्रमण्यम) से जो अब एक गैंगस्टर है. दोनों की बीत होने वाली बातचीत में पता चलता है कि शहर के बड़े गैंगस्टर होने के बावजूद वेलु अपनी पत्नी को कोविड से बचा नहीं पाया और न ही आखिर के दिनों में उस से बात कर पाया. अपनी ताक़त पर भरोसा करने वाले वेलु को अपने बेटे के सवालों से बड़ा डर लगता है. आखिर में अर्जुन अपने माता पिता को सच बता ही देता है और अरुण के साथ रहने लगा है. क्लाइमेक्स में अर्जुन और अरुण के साथ वेलु का बेटा दिखाया जाता है और वेलु बच्चों की फुटबॉल टीम का कोच बन जाता है.

कहानी समझना मुश्किल है. शुरू में जब अर्जुन फ़ोन पर दबे स्वर में अरुण से बात करता नज़र आता है तो एक स्वाभाविक सीन लगता है लेकिन वेलु के आने के बाद पूरी कहानी तितर बितर हो जाती है. वेलु और अर्जुन के बीच की बातचीत पूरी फिल्म का आधे से ज़्यादा हिस्सा ले लेती है. लॉक डाउन को अपने समलैंगिक होने को न बता पाने के लॉक डाउन से तुलना का ये विचित्र ख्याल बहुत ही अटपटा है. लेखक एस गुहाप्रिया और निर्देशक सूर्या कृष्णा का ये पहला प्रयास है.

निज़ल थरूम इधम

आखिरी कहानी रिचर्ड अन्थोनी और प्रवीणा शिवराम ने लिखी है. इस कहानी में बहुत गहराई है और अभिनय के लिए उन्होंने अनुभवी ऐश्वर्या लक्ष्मी के काँधे पर पूरी ज़िम्मेदारी डाली है. कामकाज में व्यस्त शोबी (ऐश्वर्या) अपने पिता से बात नहीं कर पाती है और उनके कॉल हर बार मिस कर देती है. एकदिन अचानक उसे फ़ोन आता है कि उसके पिता की रात को मौत हो गयी है.

शोबी सन्न रह जाती है. अपनी ज़िन्दगी में व्यस्त शोबी चाहती है कि किसी तरह घर बेच बाच कर वापस अपने शहर लौट कर काम में व्यस्त हो जाये लेकिन उसके पिता के घर में उनकी यादों का एक पहाड़ उस पर टूट पड़ता है और उसे इस बात का दुःख सालने लगता है कि उसने अपने पिता से कई हफ़्तों तक बात नहीं की, काम की व्यस्तता का बहाना कर के. अब पिता नहीं हैं, काम है लेकिन इस व्यस्तता से उसके पिता वापस नहीं आ सकेंगे.

ऐश्वर्या अपने करियर के सर्वश्रेष्ठ रोल में हैं और उन्होंने इस फिल्म के आखिरी सीन में अपनी प्रतिभा दिखा भी दी है. अकेलपन, यादें, कोविड की वजह से अपने आप से, अपने अतीत से जूझने को मजबूर हम. हर पल एक चुनौती की तरह नज़र आया है. शुरू में रोज़ नयी डिश बनायीं गयी और अब ऐसा लगता है कि चालान कर दीजिये लेकिन घर बाहर जाने दीजिये.

ये जो मनःस्थिति को कुचल कर रख देने वाले पल पिछले दो सालों में गुजरे हैं, उनका हिसाब अब नहीं हो सकेगा. ज़िन्दगी या तो ख़त्म हो गयी है या उसकी खूबसूरती चली गयी है. रिचर्ड अन्थोनी का निर्देशन अच्छा है लेकिन थोड़ी उम्मीद ज़्यादा थी क्योंकि कहानी बहुत अच्छी थी.

ये एंथोलॉजी देखने योग्य सिनेमा है. तमिल सिनेमा से जुडी कई भ्रांतियां दूर होंगी लेकिन उस से बढ़कर, स्टोरी टेलिंग के नए रूप देखने को मिलेंगे.

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