UP Election 2022: सभी पार्टियां दौड़ाती हैं ‘सियासत का करंट’, चुनावी नैया पार लगाने में कितनी मज़बूत पतवार?
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UP Election 2022: सभी पार्टियां दौड़ाती हैं ‘सियासत का करंट’, चुनावी नैया पार लगाने में कितनी मज़बूत पतवार?
UP Election 2022: उत्तर प्रदेश में इस वक्त लोक लुभावने वादों की बहार है. सभी राजनीतिक दलों की तरफ से बिना मांगें तमाम घोषणाएं की जा रही हैं. कोई पार्टी महिला सशक्तिकरण और युवाओं को लाखों रोजगार देने की बात कर रही है तो कोई पेंशन को दोबारा शुरू करने जैसे वादे.
इन सबके बीच यूपी में बिजली एक ऐसा मुद्दा हमेशा से रही है, जिसके जरिए सभी दल सियासत का करंट दौड़ा कर सत्ता हासिल करने की कोशिश करती है. इस बार एक तरफ जहां विपक्षी दलों ने मुफ्त बिजली देने का एलान किया तो वहीं सत्तारूढ़ बीजेपी ने किसानों की बिजली दरों को आधे करने की घोषणा कर दी. ऐसे में सवाल उठता है कि आखिर यूपी के चुनाव में कब से बिजली इतना बड़ा मुद्दा रही है? इस बार किस दल की तरफ से क्या एलान किया गया है और राजनीतिक जानकार अभय दूबे का इस बारे में क्या कहना है. आइये जानते हैं-
1977 से ही बिजली बड़ा मुद्दा
उत्तर प्रदेश में पहली बार 1977 में बिजली चुनावी मुद्दा बनी और राज्य की राजनीति में अब तक उसका करंट दौड़ता आ रहा है. ऐसा कहा जाता है कि यूपी में बिजली मुद्दा तब बनी जब तत्कालीन पीएम इंदिरा गांधी रायबरेली से चुनाव हार गईं. उनके पीएम रहते हुए इस जिले को चौबीसो घंटे बिजली मिलती थी, लेकिन हार के बाद यहां भी यूपी के बाकी जिलों की तरफ 10-12 घंटे बिजली मिलने लगी. इसके बाद इंदिरा गांधी को हराने वाले राजनारायण से जब इस बारे में शिकायत की गई तो उन्होंने उस वक्त अपने हाथ खड़े कर दिए थे.
ऐसा कहा जाता है कि पूर्व प्रधानमंत्री जवाहर लाल नेहरू का संसदीय क्षेत्र फुलपुर रहा हो या फिर लाल बहादुर शास्त्री का लोकसभा क्षेत्र इलाहाबाद, वहां पर बिजली अन्य जिलों की तरह ही दी जाती थी. लेकिन, इंदिरा गांधी के पीएम बनने के बाद पहली बार रायबरेली को बिजली के क्षेत्र में वीआईपी का दर्जा दिया गया था.
हर सरकार में बिजली प्रमुख मुद्दा
जनता पार्टी की सरकार जाने और कांग्रेस की वापसी के बाद एक बार फिर राज्य के उन जिलों को बिजली के लिहाज से वीआईपी कैटगरी में रखा गया जो सीएम का गृह जनपद होता था. कांग्रेस के यूपी से साल 1989 में हटने के बाद राज्य में बिजली सियासी मुद्दा बनती चली गई.
मुलायम सिंह यादव से लेकर कल्याण सिंह… मायावती… राजनाथ सिंह और फिर अखिलेश यादव तक, इन सभी की सरकारों में मुख्यमंत्री और ऊर्जा मंत्री के क्षेत्र में बिजली आपूर्ति के मामले में वीआईपी श्रेणी में रखा गया. या फिर उन जिलों में बिजली की हालत अच्छी थी जहां के नेताओं की सत्ता पर मजबूत पकड़ होती थी. तो वहीं बाकी जिलों की स्थिति बहुत अच्छी नहीं रहती थी.
सीएम योगी ने खत्म किया बिजली का वीआईपी दर्जा
उत्तर प्रदेश में योगी आदित्यनाथ के मुख्यमंत्री बनने के बाद उन्हें मुख्यमंत्री और ऊर्जा मंत्री के गृह जनपद को बिजली के मामले में वीआईपी दर्जा देना खत्म कर दिया. उन्होंने राज्य में समान रूप से बिजली देने के साथ प्रदेश के प्रमुख धार्मिक शहरों और जगहों पर 24 घंटे बिजली सुनिश्चित करने की घोषणा की. इसका नतीजा ये हुआ कि धार्मिक जगहों में मथुरा और गोरखपुर को भी शामिल किया गया और बिना वीआईपी दर्जा दिए ही इन दोनों जगहों पर चौबीसों घंटे बिजली मिलने लगी, जो ऊर्जा मंत्री और मुख्यमंत्री दोनों का क्षेत्र भी है.
इस बार यूपी चुनाव में बिजली कितना बड़ा मुद्दा?
इस सवाल के जवाब में राजनीतिक विश्लेषक अभय दूबे ने एबीपी न्यूज़ की डिजिटल टीम से बात करते हुए कहा कि चूंकि दिल्ली में अरविंद केजरीवाल ने जिस तरह सब्सिडी दी है और राष्ट्रीय राजधानी में आम आदमी पार्टी की सरकार बनने के बाद लगातार उनकी सरकार चल रही है और चुनाव जीत रहे हैं, ऐसे में दिल्ली मॉडल के आधार पर बिजली का सवाल है. इस स्थिति में जब संजय सिंह के नेतृत्व में ‘आप’ उत्तर प्रदेश में संघर्ष कर रही है, वहां भी उन्होंने बिजली का यह सवाल उठाया है.
अखिलेश का बिजली वादा ज्यादा असरदार!
अभय दूबे का कहना है कि योगी आदित्यनाथ के राज में बेशक बिजली लगातार महंगी हुई है. ये एक सवाल है कि वे बिजली नहीं सस्ती कर पा रहे हैं. ऐसे में अखिलेश यादव ने जो बिजली सस्ती करने, उपभोक्ताओं को 300 यूनिट तक मुफ्त और किसानों की सिंचाई के लिए मुफ्त बिजली का ऐलान किया है और बकायदा फॉर्म भी भरा जा रहा है,
यह आम आदमी पार्टी के पैटर्न पर है. इसका लोगों पर ज्यादा असर होगा. अभय दूबे आगे बताते हैं कि सीएम योगी ने जो धार्मिक स्थलों को बिजली से जिस तरह जोड़ा है इसकी कोई तुक समझ में नहीं आ रही है, क्योंकि बिजली रोजमर्रा की चीज है. ऐसे में इसका धर्म से क्या ताल्लुक है.
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